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परिच्छेद ६
सहधर्मिणी

वही सती सहधर्मिणी, जो पत्नी गुणयुक्त।
आय देख व्यय को करे, पतिसेवा-अनुरक्त॥१॥
यदि पत्नी दुर्भाग्य से, नहीं गुणों की मूर्ति।
गृही सुखी होता नहीं, रहते अन्य विभूति॥२॥
यदि पत्नी गुणयुक्त तो, त्रुटि फिर घर में कौन?
यदि पत्नी गुणहीन तो, कमी नहीं फिर कौन॥३॥
यदि नारी निज शील से, है सच्ची बलवान्।
उससे बढ़कर कौन है, गौरव उच्च महान्॥४॥
जग कर, सबके पूर्व ही, जो पूजे पतिदेव।
कहना उसका मानते, वारिद भी स्वयमेव॥५॥
कीर्ति, शील पतिप्रेम में, जो पूरी कर्मण्य।
धर्मधुरीणा धन्य वह, उस सम और न अन्य॥६॥
चार कोट की ओट में, नारी रखना व्यर्थ।
इन्द्रिय-निग्रह एक ही, जब रक्षार्थ समर्थ॥७॥
जन्में जिससे पुत्रपर, ज्ञानी कीर्ति समेत।
उस नारी को स्वर्ग के, देव बधाई देत॥८॥
जिस घर से फैली नहीं, यश की लता विशाल।
शिर उठाय वह शत्रु ढिंग, क्या हो सिंह सुचाल॥९॥
आदृत और विशुद्ध गृह, है उत्तम वरदान।
उपजे संतति योग्य तो, महिमा अति परिमाण॥१०॥