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परिच्छेद ८
प्रेम

प्रेमदेव के द्वार को, कर देवे जो बन्द।
ऐसी आगर हैं कहाँ, कहते आँसू मन्द॥१॥
जीवे निज ही के लिये, प्रेमशून्य नर एक।
पर, प्रेमी के हाड़ भी, आवें काम अनेक॥२॥
प्रेमामृत के चाखवे, रागी बना अतीव।
राजी हो फिर भी बंधा, तन पिजर में जीव॥३॥
होता है मन प्रेम से, स्नेही, साधु स्वभाव।
मैत्री जैसा रत्न भी, उपजे शील स्वभाव॥४॥
जो कुछ भी सौभाग्य है, यहाँ तथा परलोक।
पुरस्कार यह प्रेम का, कहते ऐसा लोग॥५॥
भद्र पुरुष के साथ ही, करो प्रेम व्यवहार।
मूर्ख उक्ति, यह प्रेम ही, खलजय को हथियार॥६॥
जलता है रवि तेज से, अस्थिहीन ज्यों कीट।
त्यों ही जलता धर्म से, प्रेमहीन नरकीट॥७॥
सूखी तरु मरुभूमि में, जब हो पल्लवयुक्त।
प्रेमहीन नर भी तभी, बने ऋद्वि संयुक्त॥८॥
जिसके मनमें प्रेम का, नहीं आत्म-सौदर्य।
वाह्य रूप धन आदि का, व्यर्थ उसे सौन्दर्य॥९॥
है जीवन, जीवन नहीं, सच्चा जीवन प्रेम।
अस्थिमांस का पिण्ड ही, जो न रखे मन प्रेम॥१०॥