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जब चन्द्रगुप्त मौर्य के समय उत्तर भारत में १२ वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा तब आठ हजार मुनियों का संघ अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत गया। और वहां जाकर पाण्ड्य नरेश के रक्षण में ठहरा। पाठक ऐतिहासिक शोधों से देखेंगे कि दक्षिण में पाण्ड्य, चोल और चेर नामक बड़े सुदृढ़ और समृद्ध राज्य विद्यमान थे। अशोक के शिलालेखों में इनको पराजित राज्यों की श्रेणी में न लिखकर मित्र राज्यों की श्रेणी में लिखा गया है। दुर्भिक्ष का समय निकल जाने पर इन मुनियों ने उत्तर भारत लौट जाने की जब चर्चा चलाई तब स्नेही पाण्ड्य नरेश ने उनको न जाने का ही आग्रह किया। इस समय इन मुनियों के प्रधान नेता विशाखाचार्य थे, जिनकी स्मृति में आज भी दक्षिण में विजगापट्टम अर्थात् विशाखापट्टम अवस्थित है। विशाखाचार्य को अन्य लेखकों ने ज्ञान का कल्पवृक्ष लिखा है। इस अगाध पाण्डित्य के कारण ही पाण्ड्यराजा को इनकी जुदाई पसन्द न थी, फिर भी मुनिगण न माने और उन्होंने एक एक विषय पर दश दश मुनियों का विभाग करके अपने जीवन के अनुभव का सार-स्वरूप एक एक पद्य ताड़पत्र पर लिखकर वहा छोड़ दिया और चुपचाप चल दिये।

पाण्ड्यपति को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने क्रोधावेश में आकर उन ताडपत्रो को बैगी नदी में फिकवा दिया, किन्तु प्रवाह के विरुद्ध जब ये चार सौ पत्र किनारे पर आ लगे तब राजा की ही आज्ञा से ये संगृहीत कर लिये गये और उन्हीं की आज्ञा से वर्तमान व्यवस्थित रूप हुआ।

मूल नलदियार में एक स्थल पर 'मुत्तरियर' शब्द आया है, जिसका अर्थ होता है 'मुक्ता नरेश' अर्थात् मोतियों के राजा। प्राचीन समय में पाण्ड्य राज्य के बन्दरगाहों से बहुत मोती निकाले जाते थे। जिनका व्यापार केवल भारत में ही नही किन्तु रोम तक होता था। इसी कारण पाण्ड्य राज्य के अधीश्वर मोतियों के राजा कहलाते थे। इस प्रकार 'मुत्तरियर' शब्द ही उक्त कथा के ऊपर प्रकाश डालता है। कुरल और नलदियार के बनते समय तामिल जनता के ऊपर जैनधर्म की इतनी गहरी छाप थी कि वह धर्म का नामकरण 'अरम' अर्थात्