परिच्छेद ९
अतिथि-सत्कार
१—बुद्धिमान् लोग, इतना परिश्रम करके गृहस्थी किस लिये बनाते है? अतिथि को भोजन देने और यात्री की सहायता करने के लिए।
२—जब घर में अतिथि हो तब चाहे अमृत ही क्यों न हो, अकेले नही पीना चाहिये।
३—घर आये हुए अतिथि का आदर-सत्कार करने में जो कभी नहीं चूकता, उस पर कभी कोई आपत्ति नही आती।
४—जो मनुष्य योग्य अतिथि का प्रसन्नता पूर्वक स्वागत करता है, उसके घर में निवास करने से लक्ष्मी को आह्लाद होता है।
५—प्रथम अतिथि को जिभरकर, उसके पश्चात् बचे हुये अन्न को जो स्वयं खाता है, क्या उसे अपने खेत को बोने की आवश्कता होगी?
६—जो पुरुष बाहिर जाने वाले अतिथि की सेवा कर चुका है और आने वाले अतिथि की प्रतीक्षा करता है, ऐसा आदमी देवताओं का सुप्रिय अतिथि बनता है।
७—हम किसी अतिथि-सेवा के माहात्म्य का वर्णन नहीं कर सकते कि उसमे कितना पुण्य है। अतिथि-यज्ञ का महत्त्व तो अतिथि की योग्यता पर निर्भर है।
८—जो मनुष्य अतिथि सत्कार नही करता वह एक दिन कहेगा- मैंने परिश्रम करके इतना धन वैभव जोड़ा पर हाय! सब व्यर्थ ही हुआ, कारण वहाँ मुझे सुख देने वाला कोई नहीं है।
९—सम्पत्तिशाली होते हुए भी जो यात्री का आदर-सत्कार नहीं करता, वह मनुष्य नितान्त दरिद्र है, यह बात केवल मूर्खों में ही होती है।
१०—पारिजात का पुष्प सूँघने से मुर्झा जाता है पर अतिथि का मन तोड़ने के लिये एक दृष्टि ही पर्याप्त है।