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पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१५६

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परिच्छेद ११
कृतज्ञता

१—आभारी बनाने की इच्छा से रहित होकर जो दया दिखाई जाती है, स्वर्ग और पृथ्वी दोनों मिल कर भी उसका बदला नहीं चुका सकते।

२—अवसर पर जो उपकार किया जाता है, वह देखने में छोटा भले ही हो, पर जगत में सबसे भारी है।

३—प्रत्युपकार मिलने की चाह के बिना जो भलाई की जाती है, वह सागर से भी अधिक बड़ी है।

४—किसी से प्राप्त किया हुआ लाभ, राई की तरह छोटा ही क्यों न हो, किन्तु समझदार आदमी की दृष्टि में बह ताडवृक्ष के बराबर है।

५—कृतज्ञता की सीमा, किये हुए उपकार पर अवलम्बित नहीं है, उसका मूल्य उपकृत व्यक्ति की लायकी पर निर्भर है।

६—महात्माओं की मित्रता की अवहेलना मत करो और उन लोगों का त्याग मत करो जिन्होंने संकट के समय तुम्हारी सहायता की है।

७—जो किसी को कष्ट से उबारता है, जन्म जन्मान्तर तक उसका नाम कृतज्ञता के साथ लिया जायगा।

८—उपकार को भूल जाना नीचता है, लेकिन यदि कोई भलाई के बदले बुराई करे तो उसको तुरन्त ही भुला देना बड़प्पन का चिह्न है।

९—हानि पहुँचाने वाले का यदि कोई उपकार स्मृत हो आता है तो महा भयङ्कर व्यथा पहुँचाने वाली भी चोट उसी क्षण भूल जाती है।

१०—और सब दोषों से कलङ्कित मनुष्यों का तो उद्धार हो सकता है, किन्तु अभागे अकृतज्ञ मनुष्य का कभी उद्धार न होगा।