पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[१३३
 

 

परिच्छेद १२
न्यायशीलता

१—न्यायनिष्ठा का सार केवल इसी में है कि मनुष्य निष्पक्ष होकर, धर्मशीलता के साथ दूसरे के देय अंश को दे देवे, फिर चाहे लेने वाला शत्रु हो या मित्र।

२—न्यायनिष्ठ की सम्पत्ति कभी कम नहीं होती। वह दूर तक, पीढ़ी दर पीढ़ी चली जाती है।

३—सन्मार्ग को छोड़कर जो धन मिलता है, उसे कभी हाथ न लगाओ, भले ही उससे लाभ के अतिरिक्त और किसी बात की सम्भावना न हो।

४—भले और बुरे का पता उसकी सन्तान से चलता है।

५—भलाई और बुराई का प्रसंग तो सभी को आता है, पर एक न्यायनिष्ठ मन बुद्धिमानों के लिए गर्व की वस्तु है।

६—जब तुम्हारा मन सत्य से विमुख होकर असत्य की ओर झुकने लगे तो समझ लो कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है।

७—संसार धर्मात्मा और न्याय-परायण पुरुष की निर्धनता को हेय- दृष्टि से नहीं देखता।

८—बराबर तुली हुई उस तराजू की डंडी को देखो, वह सीधी है और दोनों ओर एक सी है। बुद्धिमानों का गौरव इसी में है कि वे इसके समान ही बने, न इधर को मुके और न उधर को।

९—जो मनुष्य अपने मन में भी नीति से नही डिगता, उसके न्यायमार्गी ओठों से निकली हुई बात नित्य-सत्य है।

१०—उस सद्व्यवहारी पुरुष को देखो कि जो दूसरे के कामों को भी अपने विशेष कार्यों के समान ही देखता भालता है। उसके उद्योग-धन्दे अवश्य उन्नति करेगे।