पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[१३५
 

 

परिच्छेद १३
संयम

१—आत्म-संयम से स्वर्ग प्राप्त होता है, किन्तु असयत इन्द्रिय-लिप्सा अपार अंधकारपूर्ण नरक के लिए खुला हुआ राजपथ है।

२—आत्म-संयम की रक्षा अपने खजाने के समान ही करो, कारण उससे बढ़कर इस जीवन में और कोई निधि नहीं है।

३—जो पुरुष ठीक तरह से समझ बूझ कर अपनी इच्छाओं। का दमन करता है, उसे मेधादिक सभी सुखद वरदान प्राप्त होंगे।

४—जिसने अपनी समस्त इच्छाओं को जीत लिया है और जो अपने कर्त्तव्य से पराड्मुख नही होता, उसकी आकृति पहाड़ से भी बढ़कर प्रभावशाली होती है।

५—विनय सभी को शोभा देती है, पर पूरी श्री के साथ श्रीमानो में ही खुलती है।

६—जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को उसी तरह अपने में खींच कर रखता है, जिस तरह कछुआ अपने हाथ पांव को खींच कर भीतर छुपा लेता है, उसने अपने समस्त आगामी जन्मो के लिए खजाना जमा कर रखा है।

७—और किसी को चाहे तुम मत रोको, पर अपनी जिह्वा को अवश्य लगाम लगाओ, क्योकि बेलगाम की जिह्वा बहुत दुख देती है।

८—यदि तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को कष्ट पहुँचता है तो तुम अपनी सब भलाई नष्ट हुई समझो।

९—भाग का जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है, पर वचन का घाव सदा हरा बना रहता है।

१०—उस मनुष्य को देखो जिसने विद्या और बुद्धि प्राप्त कर ली है। जिसका मन शान्त और पूर्णत वश में है, धार्मिकता तथा अन्य सब प्रकार की भलाई उसके घर उसका दर्शन करने के लिए लाती है।