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पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१६३

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परिच्छेद १५
परस्त्री-त्याग

धर्म धन से अहो, जिसको है अनुराग।
करे नहीं वह भूलकर, पर-नारी से राग॥१॥
पापबुद्धि से मूर्ख ही, तके पड़ौसी-द्वार।
पतितों में वह अग्रणी, अधर्मों का सरदार॥२॥
निर्भ्रम मित्रों के यहाँ, जो करते हैं घात।
वे कामी बस मृत्यु के, मुख में ही साक्षात॥३॥
कैसे वह नर श्रेष्ठ है, जो करता व्यभिचार?
लज्जा जैसी वस्तु भी, तज देता जब जार॥४॥
गले लगाता कामवश, बैठाकर निज अंक।
सुलभ पड़ौसिन को, मनुज, लेता नाम कलंक॥५॥
छुटकारा पाता नहीं, इन चारों से जार।
घृणा पाप के साथ में, भ्रान्ति कलंक अपार॥६॥
रूप तथा लावण्यमय, देख पड़ौसिन अंग।
होता जिसे विराग है, वही गृही अव्यङ्ग[]॥७॥
धन्य पुरुष जो शील में, है पूरा श्रीमन्त।
केवल धर्मी ही नहीं, भूतल में वह सन्त॥८॥
पर-रमणी भेटे न जो, डाल गले भुजपाश।
भूमर के वह पुण्य सब, भोगे नृप संकाश[]॥९॥
और पाप को त्याग तू, चाहे मत भी त्याग।
जो चाहे सुश्रेय तू, त्याग पड़ौसिन राग॥१०॥


  1. पूर्ण निर्दोष।
  2. राजा का तुल्य।