पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[१३९
 

 

परिच्छेद १५
परस्त्रीत्याग

१—जिन लोगों की दृष्टि धर्म तथा धन पर रहती है वे कभी चूक कर भी परस्त्री की कामना नहीं करते।

२—जो लोग धर्म से गिर गये है उनमे उस पुरुष से बढ़ कर मूर्ख और कोई नहीं है जो कि पड़ौसी की ड्योढी पर खड़ा होता है।

३—निस्सन्देह वे लोग काल के मुख में है कि जो सन्देह न करने वाले मित्र के घर पर हमला करते है।

४—मनुष्य चाहे कितना ही श्रेष्ठ क्यो न हो, पर उसकी श्रेष्ठता किस काम की जबकि वह व्यभिचारजन्य लज्जा का कुछ भी विचार न कर परस्त्री-गमन करता है।

५—जो पुरुष अपने पड़ौसी की स्त्री को गले लगाता है इसलिए कि वह उसे सहज में मिल जाती है, उसका नाम सदा के लिए कलङ्कित हुआ समझो।

६—व्यभिचारी को इन चार बातों से कभी छुटकारा नहीं मिलता— घृणा, पाप, भ्रम और कलङ्क।

७—सद्गृहस्थ वही है जिसका हृदय अपने पड़ौसी की स्त्री के सौन्दर्य तथा लावण्य से आकृष्ट नहीं होता।

८—धन्य है उसके पुरुषत्व को जो पराई स्त्री पर दृष्टि भी नहीं डालता, वह केवल श्रेष्ठ और धर्मात्मा ही नही, सन्त है।

९—पृथ्वी पर की सब उत्तम बातों का पात्र कौन है? वही कि जो परायी स्त्री को बाहु-पाश में नही लेता।

१०—तुम कोई भी अपराध और दूसरा कैसा भी पाप क्यो न करो पर तुम्हारे पक्ष में यही श्रेयस्कर है कि तुम पड़ौसी की स्त्री से सदा दूर रहो।