पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४०]
 

 

परिच्छेद १६
क्षमा

खोदे उसको भी मही, देती आश्रयदान।
बाधक को तुम भी सहो, बड़ा इसी में मान॥१॥
कार्यविघातक को सदा, करो क्षमा का दान।
भूल सको यदि हानि तो, बढ़ै और भी मान॥२॥
विमुख बने आतिथ्य से, वह ही सच्चा रंक।
सहे मूर्ख की मूर्खता, वह ही वीरमयंक[१]॥३॥
गौरव का यदि चाहते, बनना तुम आधार।
क्षमाशील बनकर करो, सबसे सद्व्यवहार॥४॥
प्राज्ञों से अश्लाघ्य वह, जो करता प्रतिवैर।
सोने सा बहुमूल्य वह, जो अरि में निर्वैर॥५॥
बदले से तो एक दिन, होता मनको मोद।
किन्तु क्षमा से नित्य हो, गौरव का आमोद[२]॥६॥
मिलें बहुत सी हानियाँ, पर वैचित्र्य अथाह।
मन में खेद न रश्च भर, ना बदले की चाह॥७॥
क्षति यद्यपि देता अधिक, मानी, मद से चूर।
पर सद् वर्तन से उसे, करो विजित भरपूर॥८॥
गृहत्यागी ऋषि वर्ग से, उनकी ज्योति अपार।
सहते जो हैं शान्ति से, दुर्जन वाक्यप्रहार॥९॥
तप करते जो भूख सह, वे ऋषि उच्च महान्।
क्षमाशील के बाद ही, पर उनका सम्मान॥१०॥


  1. वीरों के चन्द्र।
  2. सुगन्धि।