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५. पलमोलि अथवा सूक्तियां—इसके रचयिता मुनरुनैयार अरैयानार नामक जैन है। इनमे नलदियार के समान वेणवावृत्त में ४०० पद्य है। इसमे बहुमूल्य पुरातन सूक्तियां है, जो न केवल सदाचार के नियम ही बताती है बल्कि बहुत अंश में लौकिक बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण है। तामिल के नीति विषयक अष्टादश ग्रन्थों में कुरल-नालदियार के बाद इसका तीसरा नम्बर है।
६. तिनैमालैनूरैम्बतु—इसके रचयिता कणिमेदैयार हैं। यह जैन लेखक भी संगम के कवियों में अन्यत्तम है। यह ग्रन्थ शृङ्गार तथा युद्ध के सिद्धान्तों का वर्णन करता है।
७. 'नान्मणिक्कडिगे'—अर्थात् रत्नचतुष्टय प्रापक है। इसके लेखक जैन विद्वान् विलम्बिनथर है। यह वेणवा छन्द में हैं। प्रत्येक पद्य में रत्नतुल्य सदाचार के नियम चतुष्टय का वर्णन है।
८. एलाति—यह ग्रन्थ अपने अर्थ से इलायची, कर्पूर, इरीकारम् नामक सुगन्धित काष्ठ, चन्दन तथा मधु के सुगन्धपूर्ण संग्रह को घोषित करता है। ग्रन्थ के इस नामकरण का कारण यह है कि इसके प्रत्येक पद्य में ऐसे ही सुरभिपूर्ण पांच विषयों का वर्णन है। इसके कर्ता का नाम कणिमेडियार है, जो कि जैनधर्म के उपासक थे। इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा सब पंडित एक स्वर से करते हैं। अब हम इस विषय में और कुछ न लिखकर अन्त में यही कहेंगे कि ये सब महान् जैन ग्रन्थ हिन्दू धर्म के पुनरुद्धार के पहिले के बने हुए है, इसलिए इन्हे सातवीं सदी के पूर्ववर्ती मानना चाहिए।
(१) तामिल जनता में प्राचीन परम्परा से प्राप्त जनश्रुति चली आती है कि कुरलका सबसे प्रथम पारायण पांडियराज 'उग्रवेरुव बद्धि' के दरबार में मदुरा के ४९ कवियों के समक्ष हुआ था। इस राज का राज्यकाल श्रीयुत एम श्रीनिवास अय्यर ने १२५ ईस्वी के लगभग सिद्ध किया है।
(२) जैन ग्रन्थों से पता लगता है कि ईस्वी सन से पूर्व प्रथम शताब्द में दक्षिण पाटलिपुत्र में द्रविडसंघ के प्रमुख श्री कुन्दकुन्दाचार्य अपर नाम एलाचार्य थे। इसके अतिरिक्त जिन प्राचीन पुस्तकों में