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परिच्छेद १९
चुगली से घृणा

'खाता यह चुगली नहीं', पर की ऐसी बात।
सुनकर खल भी फूलता, जिसे न नीति सुहात॥१॥
परहित तज, पर का अहित, करना निन्दित काम।
मधुमुख पर उससे बुरा पीछे निन्दाधाम॥२॥
मृषा, अधम जीवन बुरा, उससे मरना श्रेष्ठ।
कारण ऐसी मृत्यु से, बिगहें कार्य न श्रेष्ठ॥३॥
मुख पर ही गाली तुम्हें, दीहो बिना विचार।
तो भी उसकी पीठ पर, बनो न निन्दाकार॥४॥
मुख से कितनी ही भली, यद्यपि बोले बात।
पर जिह्वा से चुगल का, नीचहृदय खुल जात॥५॥
निन्दाकारी अन्य के, होगे तो स्वयमेव।
खोज खोज चिल्लायेंगे, वे भी तेरे एँव॥६॥
मैत्रीरस-अनभिज्ञ जो, उक्ति माधुरीहीन।
वह ही बोकर फूट को, करता तेरह-तीन॥७॥
खुल कर करते मित्र की, जो अकीर्ति का गान।
वे कब छोड़ें शत्रु का, अपयश का व्याख्यान॥८॥
धैर्य सहित उर में सहे, निन्दक पादप्रहार।
धर्म ओर फिर फिर तके, भू, उतारचे भार॥९॥
अन्य मनुज के दोष सम, जो देखे निज दोष।
उस समान कोई नहीं, भू-भर में निर्दोष॥१०॥