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परिच्छेद २४
कीर्ति

दीनजनों को दान दे, करो कीर्तिविस्तार।
कारण उज्ज्वलकीर्ति सम, अन्य न कुछ भी सार॥१॥
जो दयालु करते सदा, दीनजनों को दान।
सदा प्रशंसक-कण्ठ में, उनका नाम महान॥२॥
जो पदार्थ इस विश्व में, निश्चित उनका नाश।
अतुलकीर्ति ही एक है, जिसका नहीं विनाश॥३॥
स्थायी यश जिसका अहो, छाया सर्वदिगन्त।
माने उसको देव भी, ऋषि से अधिक महन्त॥४॥
जिनसे बढ़ती कीर्ति है, ऐसे मृत्यु-विनाश।
वीरों के ही मार्ग में, आते दोनों खाश॥५॥
जो लेते नरजन्म तो, करो यशस्वी कर्म।
यदि ऐसा करते नहीं, मत घारो नर-चर्म॥६॥
निन्दकंजन पर अज्ञ यह, करता है बहुरोष।
पर निजपर करता नही, रखकर भी बहुदोष॥७॥
उन सबकी इस लोक में, नही प्रतिष्ठा तात।
जिनकी स्मृति कुछ भी नहीं, कीर्तिमयी विख्यात॥८॥
भ्रष्टकीर्तिनर-भार से, जब जब दबता देश।
पूर्वऋद्धि के साथ में, तब तब उजड़े देश॥९॥
वह ही जीवित लोक में, जिसको नहीं कलंक।
मृतकों में नर है वही, यश जिसका सकलंक॥१०॥