परिच्छेद २५
दया
बड़े पुरुष करुणामयी, मन से ही श्रीमान।
लौकिक धन से क्षुद्र भी, होते हैं धनवान॥१॥
सोच समझ क्रमवार ही, करो दया के कर्म।
मुक्तिमार्ग उसको सभी, कहें जगत के धर्म॥२॥
सूर्य बिना जिस लोक में, छाया तम ही प्राज्य।
वहाँ न लेते जन्म वे, जिनमें करुणाराज्य॥३॥
जिन पापों के नाम से, काँप उठे यह जीव।
वह उनको भोगे नहीं, जिसमें दया अतीव॥४॥
दयाधनी पाता नहीं, क्लेशभरा सन्ताप।
साक्षी इसमें है मही, मारुतवेष्ठित आप॥५॥
दयाधर्म जिसने तजा, होता उस पर शोक।
चख कर भी फल पाप के, भूल गया अघशोक॥६॥
जैसे वैभवहीन को, नहीं सुखद यह लोक।
दयाशून्य नर को नहीं, वैसे ही परलोक॥७॥
ऐहिक धन से क्षीण फिर, हो सकता धनवान।
शुभ-दिन पर उसको नहीं, जिसमें करुणा म्लान॥८॥
सत्य सुलभ उसको नहीं, जिसमें मोहविकार।
सहज न वैसे क्रूर को, करुणा का अधिकार॥९॥
दुर्बल की जैसी दशा, करता है तू क्रूर!
वैसी हो तेरी दशा, तब कैसा हो शूर॥१०॥