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परिच्छेद २७
तप

१—शान्तिपूर्वक दुख सहन करना और जीवहिंसा न करना, बस इन्ही में तपस्या का समस्त सार है।

२—तपस्या तेजस्वी लोगों के लिए ही है दूसरे लोगों का तप करना निरर्थक है।

३—तपस्वियों को आहारदान तथा उनकी सेवा शुश्रूषा के लिए भी कुछ लोग आवश्यक है क्या इसी विचार से इतने लोगों ने तप करना स्थगित कर रखा है।

४—यदि तुम अपने शत्रुओं का नाश करना और उन लोगों को उन्नत बनाना चाहते हो जो तुम्हें प्रेम करते है, तो जान रक्खो कि यह शक्ति तप में है

५—तप समस्त कामनाओं को यथेष्ट रूप से पूर्ण कर देता है, इसीलिए लोग जगत में तपस्या के लिए उद्योग करते है।

६—जो लोग तपस्या करते है वे ही वास्तव में अपना भला करते हैं और सब तो लालसा के जाल में फँसे हुए है जो कि अपने को केवल हानि ही पहुँचाते है।

७—सोने को जिस आग में पिघलाते है वह जितनी ही अधिक तेज होती है सोने का रंग उतना ही अधिक उज्ज्वल निकलता है। ठीक इसी तरह नपस्वी जितने ही बड़े कष्टों को सहता है उसके उतने ही अधिक आत्मिक भाव निर्मल होते है।

८—देखो, जिसने अपने पर प्रभुत्व प्राप्त कर लिया है उस पुरुषोत्तम को सभी लोग पूजते हैं।

९—देखो, जिन लोगों ने तप करके शक्ति और सिद्धि प्राप्त कर ली है, मृत्यु को जीतने में भी सफल हो सकते है।

१०—यदि जगत् में दीनों की संख्या अधिक है तो इसका कारण यही है कि वे लोग जो तप करते है थोड़े हैं और जो तप नहीं करते हैं उनकी संख्या अधिक है।