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कुरल-कर्ता कुन्दकुन्द (एलाचार्य)
विक्रम सं॰ ९९० में विद्यमान श्री देवसेनाचर्य अपने दर्शनसार नामक ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य नाम के साथ उनके अन्य चार नामों का उल्लेख करते हैं—
[१]पद्मनन्दि वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य।
श्री कुन्दकुन्द के गुरु द्वितीय भद्रबाहु थे ऐसा बोधप्राभृत की निम्नलिखित गाथा से ज्ञात होता है—
सद्दवियारों हूओं भासासुत्तेसु ज जिणे कहिय।
सो तह कहिय णण सीसेण य भद्दबाहुस्स॥
ये भद्रबाहु द्वितीय नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली के अनुसार वीर निर्वाण से ४९२ वर्ष बाद हुए हैं।
कुरलकर्ता के अन्य ग्रन्थ तथा उनका प्रभाव
कुरल का प्रत्येक अध्याय अध्यात्म-भावना से ओतप्रोत है, इसलिए विज्ञपाठक के मनमें यह कल्पना सहज ही उठती है कि इस के कर्ता बड़े अध्यात्मरसिक महात्मा होंगे। और जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि इसके रचयिता के एलाचार्य है जो कि अध्यात्मचक्रवर्ती थे तो यह कल्पना यथार्थता का रूप धारण कर लेती है, कारण एलाचार्य जिनका कि अपर नाम कुन्दकुन्द है ऐसे ही अद्वितीय ग्रन्थों के प्रणेता है।
उनके समयसारादि ग्रन्थों को पढ़े बिना कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने पूरा जैन तत्वज्ञान अथवा अध्यात्मविद्या जान ली। जिस सूक्ष्म तत्व की विवेचनशैली का आभास उनके मुनि जीवनसे पहले रचे हुए कुरलकाव्य से होता है वह शैली इन ग्रन्थों में बहुत
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पट्टे तदीये मुनिमान्यवृत्तौ, जिनादिचन्द्र समभूदतन्द्र।
ततोऽभवत् पच सुनामधामा, श्री पद्मनन्दी मुनिचक्रवर्ती॥
आचार्य कुन्दकुन्दारव्यों वक्रग्रीवों महामति।
एलाचार्यों-गृद्धपृच्छ पद्मनन्दी वितायते॥
(मूलसंघ की पट्टावलि)