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परिच्छेद २९
निष्कपट व्यवहार

१—जो यह चाहता है कि वह घृणित न समझा जाये तो उसे स्वयं कपटपूर्ण विचारों से अपने आपको बचाना चाहिए।

२—अपने मन में यह विचारना पाप है कि मैं अपने पड़ोसी की सम्पत्ति को कपट द्वारा ले लूँगा।

३—वह वैभव जो कपट द्वारा प्राप्त किया जाता है भले ही बढ़ती की ओर दिखाई देता हो, परन्तु अन्त में नष्ट होने को ही है।

४—अपहरण की प्यास अपने उन्नतिकाल में भी अनन्त दुखों की ओर ले जाती है।

५—जो मनुष्य दूसरो की सम्पत्ति को लोभभरी दृष्टि से देखता है और उसको हड़पने ‌की प्रतीक्षा में बैठा रहता है उसके हृदय में दया को कोई स्थान नही और प्रेम तो उससे कोसों दूर है।

६—लूट के पश्चात् भी जिस मनुष्य को लोभ की प्यास बनी रहती है वह वस्तुओं का उचित मूल्य नही समझ सकता और न वह सत्यमार्ग का पथिक ही बन सकता है।

७—वह मनुष्य धन्य है जिसने सांसारिक वस्तुओं के सार को समझ कर अपने हृदय को दृढ़ बना लिया है। वह फिर अपने पड़ोसी को धोखा देने की गलती कभी नहीं करेगा।

८—जिस प्रकार तत्त्वज्ञानी साधु सन्तों के हृदय में सत्यता निवास करती है उसी प्रकार चोर ठगों के मन में कपट का वास नियम से होता है।

९—उस मनुष्य पर तरस आती है जो छल तथा कपट के अतिरिक्त और किसी बात पर विचार ही नहीं करता, वह सत्यमार्ग को छोड़ देगा और नाश को प्राप्त होगा।

१०—जो दूसरो को छलता है वह स्वयं अपने शरीर का भी स्वामी नहीं रहने पाता, परन्तु जो सच्चे है उनको स्वर्ग का नित्य उत्तराधिकार रहता है।