पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७४]
 

 

परिच्छेद ३३
अहिंसा

सब धर्मों में श्रेष्ठ है, परम अहिंसा धर्म।
हिंसा के पीछे लगे, पाप भरे सब कर्म॥१॥
सन्तों के उपदेश में, ये ही दो हैं सार।
जीवों की रक्षा तथा, भूखे को आहार॥२॥
कहता सारा लोक है, परम अहिंसा-धर्म।
उसके पीछे सत्य है, ऋषियों का यह मर्म॥३॥
मत मारो बुध भूलकर, लघु से भी लघु जीव।
वह ही उज्ज्वल मार्ग है, जिसमें दया अतीव॥४॥
जिसने त्यागे विश्व के, पाप भरे सब कर्म।
उन में भी वह मुख्य है, जिसे अहिंसा धर्म॥५॥
धन्य! अहिंसा का व्रती, जिसमें करुणाभाव।
उस के सुदिनों पर नहीं, काल बली का घाव॥६॥
जीवन संकटग्रस्त हो, पाकर विपदा-काल।
तो भी पर के प्राण को, मत ले विज्ञमराल॥७॥
सुनते हैं बलिदान से, मिलतीं कई विभूति
वे भव्यों की दृष्टि में, तुच्छ घृणा की मूर्ति॥८॥
जिनकी निर्भर जीविका, हत्या पर ही एक।
मृतभोजी उनको विबुध, माने, हो सविवेक॥९॥
सड़े गले उस देह को, देख सतत धीमान।
घातक वह था पूर्व में, सोचें मन अनुमान॥१०॥