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ही अधिक परिस्फुट हो गई है। ये ग्रन्थ ज्ञानरत्नाकर हैं, जिनसे प्रभावित होकर विविध विद्वानों ने यह उक्ति निश्चित की है"—न है न होएँगे मुनीन्द्र कुन्दकुन्द से।"

पीछे के ग्रन्थकारों ने या शिलालेख लिखने वालों ने कुन्दकुन्द को 'मूलसंघव्योमेन्दु, मुनींद्र, मुनिचक्रवर्ती' पदों से भूषित किया है। इससे हम सहज में ही यह जान सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व कितना गौरवपूर्ण है। दिगम्बर जैनसंघ के साधुजन अपने को कुन्दकुन्द आम्नाय का घोषित करने में सम्मान समझते है। वे शास्त्र-विवेचन करते समय प्रारम्भ में यह अवश्य पढ़ते है कि—

'मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमोगणी।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥'

इनके रचे हुए चौरासी प्राभृत (शास्त्र) सुने जाते है, पर अब वे पूरे नहीं मिलते। प्रायः नीचे लिखे ग्रन्थ ही मिलते हैं—(१ समयसार (२) प्रवंचनसार, (३) पंचास्तिकाय, (४) अष्टपाहुड, (५) नियमसार, (६) द्वादशानुप्रेक्षा, (७) रयणसार। ये सब ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है और प्रायः सब ही जैनशास्त्रभण्डारों में मिलते हैं।

ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने कोएडकुन्द पुर में रहकर षट्खण्डागम पर बारह हजार श्लोक परिमित एक टीका लिखी थी जो अब दुष्प्राप्य है। समयसार ग्रन्थ पर विविध भाषाओं में अनेक टीकाएँ उपलब्ध है। हिन्दी के प्राचीन महाकवि पं॰ बनारसीदास जी ने इसके विषय में लिखा है कि "नाटक पढ़त हिय फाटक खुलत है" समयसार, प्रवचनसार और पवास्तिकाय ये तीनों ग्रन्थ विज्ञसमाज में नाटकत्रयी नाम से प्रसिद्ध हैं और तीनों ही ग्रन्थ निःसन्देह आत्मज्ञान के आकर है।

इन सब ग्रन्थों के पठन पाठन का यह प्रभाव हुआ कि दक्षिणा पथ से उत्तरापथ तक आचार्यकी उज्ज्वल कीर्ति छागई और भारतवर्ष में वे एक महान् आत्मविद्या के प्रसारक माने जाने लगे, जैसा कि श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरिस्थ निम्नलिखित शिलालेख से प्रकट होता है—