परिच्छेद ३५
त्याग
१—मनुष्य ने जो वस्तु छोड़ दी है उससे पैदा होने वाले दुख से उसने अपने को मुक्त कर लिया है।
२—त्याग से अनेको प्रकार के सुख उत्पन्न होते हैं, इसलिए यदि तुम उन्हें अधिक समय तक भोगना चाहते हो तो शीघ्र त्याग करो।
३—अपनी पाँचों इन्द्रियों का दमन करो और जिन पदार्थों से तुम्हें सुख मिलता है उन्हें बिल्कुल ही त्याग दो।
४—अपने पास कुछ भी न रखना यही व्रतधारी का नियम है। एक वस्तु को भी अपने पास रखना मानो उन बन्धनों में फिर आ फँसना है जिन्हें मनुष्य एक बार छोड़ चुका है।
५—जो लोग पुनर्जन्म के चक्र को बन्द करना चाहते हैं, उनके लिए ग्रह शरीर भी अनावश्यक है। फिर भला अन्य बन्धन कितने अनावश्यक न होगे?
६—'मै' और 'मेरे' के जो भाव है, वे घमण्ड और स्वार्थपूर्णता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो मनुष्य उनका दमन कर लेता है वह देवलोक से भी उच्च लोक को प्राप्त होता है।
७—देखो, जो मनुष्य लालच में फँसा हुआ है और उससे निकलना नहीं चाहता, उसे दुख आकर घेर लेगा और फिर मुक्त न होगा।
८—जिन लोगों ने सब कुछ त्याग दिया है, वे मुक्ति के मार्ग में हैं, परन्तु अन्य सब मोहजाल में फँसे हुए है।
९—ज्यो ही लोभ-मोह दूर हो जाते है त्यो ही उसी क्षण पुनर्जन्म बन्द हो जाता है। जो मनुष्य इन बन्धनों को नहीं काटते वे भ्रमजाल में फँसे रहते है।
१०—उस ईश्वर की शरण में जायो जिसने सब मोहो को छिन्न भिन्न कर दिया है और उसी का आश्रय लो जिससे सब बन्धन टूट जाये।