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परिच्छेद ३७
कामना का दमन

एक वस्तु की कामना, बनती बीज समान।
जन्म फसल जो जीव को, करती संतत दान॥१॥
करनी हो यदि कामना, तो चाहो भव-पार।
पर निष्कामी ही वहाँ, रखता है अधिकार॥२॥
इच्छा-जय ही लोक में, वस्तु बड़ी निर्दोष।
स्वर्गों में भी दूसरा, उस सम अन्य न कोष॥३॥
नहीं कामना त्यागसम, उत्तम कोई शुद्धि।
परब्रह्म में प्रीति हो, तो हो ऐमी बुद्धि॥४॥
जिसने जीती कामना, वह ही मुक्त महा।
अन्य बँधे भवपास में दिखें स्वतंत्र समान॥५॥
त्यागो तृष्णा दूर ही, जो चाहो शुभ काल।
मिले निराशा अन्त में, तृष्णा केवल जाल॥६॥
छोड़े जिसने सर्वथा, विषयों के सब कार्य।
मुक्ति मिले उस मार्ग से, कहे जिसे वह आर्य॥७॥
जिसे न कोई कामना, उसे न कोई दुःख।
आशा में मारा फिरे, उसको सब ही दुःख॥८॥
मिल सकता नर को यहॉ. स्थायी सुख अनुरूप।
तृष्णा यदि विश्वस्त हो, जो है विपदारूप॥९॥
भूतल में वह कौन है, जो हो इच्छाप्त।
जिसने ये ही त्याग दी, वह ही पूरा तृप्त॥१०॥