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वन्धों विभुर्भ्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्द
कुन्द-प्रभा-प्रणयिकीर्ति-विभूषिताश।
यश्वारु-चारण-कराम्बुजचश्चरीक—
श्चक्र श्रुतस्य भरते प्रयत्त प्रतिष्ठाम्॥५॥
तपस्या के प्रभाव से श्री कुन्दकुन्दाचार्य को 'चारण-ऋद्धि' प्राप्त हो गई थी, जिसका कि उल्लेख श्रवणबेलगोला के अनेक शिलालेखोंमें पाया जाता है। तीन का उद्धरण हम यहाँ देते हैं।
तस्यान्वये भूविदिते बभूव य पद्मनन्दी प्रथमाभिधान।
श्रीकुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्य सत्सयमादुद्गत चारणर्द्धि॥
श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचायशब्दोत्तर कौण्डकुन्द।
द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसजातसुचारणार्द्ध॥
रजोभिरस्पृष्टतममन्त-वर्वाश्येपि सव्यञ्जयितु यतीश।
रज पद भूमितल बिहाय चचार मन्ये चतुरगुल स॥
इन सब विवरणों को पढ़कर हृदय को पूर्ण विश्वास होता है कि ऐसे ही महान ग्रन्थकारकी कलमसे कुरलकी रचना होनी चाहिए।
कुरलकर्ता का स्थान—
इस वक्तव्य को पढकर पाठकों के मन में यह विचार उत्पन्न अवश्य होगा कि कुरल आदि ग्रन्थो के रचयिता श्री पलाचार्य का दक्षिण मे वह कौनसा स्थान है जहा पर बैठकर उन्होने इन ग्रन्थो का अधिकतर प्रणयन किया था। इस जिज्ञामा की शान्ति के लिए हमेंनीचे लिखा हुआ पद्य देखना चाहिए-
दक्षिणदेशे मलये हेमग्रामे मुनिमहात्मामीत्।
एलाचार्यों नाम्ना द्रविडगणाधीश्वरो धीमान्॥
यह श्लोक एक हस्तलिखित 'मन्त्रलक्षण' नामक ग्रन्थमें मिलता है, जिससे ज्ञात होता है कि महात्मा एलाचार्य दक्षिण देश के मलय प्रान्त में हेमग्राम के निवासी थे, और द्रविसघ के अधिपति थे। यह हेमग्राम कहाँ है इसकी खोज करते हुए श्रीयुत मल्लिनाथ चक्रवर्ती एम॰ ए॰ एल॰ टी॰ ने अपनी प्रवचनसार की प्रस्तावना में लिखा है कि—मद्रास प्रेसीडेन्सी के मलाया प्रदेशमें 'पोन्नूरगांव' को ही प्राचीन