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परिच्छेद ४०
शिक्षा

जो कुछ शिक्षा योग्य है, वह सब सीखो तात।
शिक्षण के पश्चात् ही, चलो उसी विध भ्रात॥१॥
जीवित, मानव जाति के, दो ही नेत्र विशेष।
अक्षर कहते एक को, संख्या दूजा शेष॥२॥
चक्षु सहित वह एक ही, जिसमें ज्ञान पवित्र।
गड्ढे केवल अन्य के, मुख पर बने विचित्र॥३॥
प्राज्ञपुरुष आते समय, देते हर्ष महान।
पर वे ही जाते समय, कर देते मन म्लान॥४॥
भिक्षुक सम यदि भर्त्सना, करते हों गुरुदेव।
फिर भी सीखो अन्यथा, तजना अधम कुटेव॥५॥
खोदो जितना स्रोत को, उतना मिलता नीर।
सीखो जितना ही अधिक, उतनी मति गम्भीर॥६॥
शिक्षित को सारी मही, घर है और स्वदेश।
फिर क्यों चूके जन्म भर, लेने में उपदेश॥७॥
जो कुछ सीखा जीव ने, एक जन्म में ज्ञान।
उससे अग्रिम जन्म भी, होते उच्च महान॥८॥
मुझ सम ही यह अन्य को, देता मनमें मोह।
इससे ही बुध चाव से, करते ज्ञान-विनोद॥९॥
विद्या ही नर के लिए, अविनाशी त्रुटिहीन।
निधि है, जिससे अन्य धन, होते शोभाहीन॥१०॥