पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२१४

विकिस्रोत से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[१८९
 

 

परिच्छेद ४०
शिक्षा

१—प्राप्त करने योग्य जो ज्ञान है, उसे सम्पूर्ण रूप से प्राप्त करना चाहिए और प्राप्त करने के पश्चात् तदनुसार व्यवहार करना चाहिए।

२—मानव जाति की जीती जागती दो आँखें है, एक को अक कहते हैं और दूसरे को अक्षर।

३—शिक्षित लोग ही आँख वाले कहलाये जा सकते है, अशिक्षितों के शिर मे केवल दो गड्ढे होते है।

४—विद्वान् जहाँ कही भी जाता है अपने साथ आनन्द ले जाता है, लेकिन जब वह विदा होता है तो पीछे दु ख छोड़ जाता है।

५—यद्यपि तुम्हे गुरु या शिक्षक के सामने उतना ही अपमानित और नीचा बनना पड़े जितना कि एक भिक्षुक को धनवान् के समक्ष बनना पड़ता है, फिर भी तुम विद्या सीखो। मनुष्यों में अधम वे ही लोग है जो विद्या सीखने से विमुख होते है।

६—खोते को तुम जितना ही खोदोगे उतना ही अधिक पानी निकलेगा। ठीक इसी प्रकार तुम जितना ही अधिक सीखोगे उतनी ही तुम्हारी विद्या में वृद्धि होगी।

७—विद्वान् के लिए सभी जगह उसका घर है और सभी जगह उसका स्वदेश है। फिर लोग मरने के दिन तक विद्या प्राप्त करते रहने में असावधानी क्यो करते है?

८—मनुष्य ने एक जन्म में जो विद्या प्राप्त कर ली है वह उसे समस्त आगामी जन्मो में भी उच्च और उन्नत बना देगी।

९—विद्वान् देखता है कि जो विद्या उसे आनन्द देती है वह संसार को भी आनन्दप्रद होती है और इसीलिए वह विद्या को और भी अधिक चाहता है।

१०—विद्या मनुष्य के लिए त्रुटिहीन एक अविनाशी निधि है, उसके सामने दूसरी सम्पत्ति कुछ भी नही है।