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परिच्छेद ४३
बुद्धि

सहसा विपदा चक्र में, प्रतिभा कवच समान।
बुद्धिदुर्ग को घेर कर, होते रिपु हैं म्लान॥१॥
यह सुबुद्धि ही रोकती, इन्द्रियविषयविकार।
और अशुभ से श्रेष्ठपथ, ले जाती विधिबार॥२॥
सच से मिथ्या बात को, करदेवे जो दूर।
चाहे वक्ता कोई हो, वही बुद्धि गुणपूर॥३॥
सरल सदा बोले सुधी, वाणी गौरवपूर्ण।
पर-भाषण का मर्म भी, समझे वह अतितूर्ण[१]॥४॥
सबसे करता प्रेममय, प्राज्ञ सदा व्यवहार।
मैत्री जिसकी एकसी, चित्त व्यवस्थाधार॥५॥
लोकरीति के तुल्य ही, करना सब व्यवहार।
सूचित करता बुद्धि को, वृद्धकथन यह सार॥६॥
प्रतिभाशाली जानता, पहिले ही परिणाम।
नहीं जानता अज्ञ पर, आगे का परिणाम॥७॥
विपदा ऊपर आप ही, पड़ना बुद्धि अनार्य।
मीतियोग्य से भीत हो, रहना सन्मतिकार्य॥८॥
दूरदृष्टि सत्र कार्य को, रहे प्रथम तैयार।‌ ‌
इससे उस पर दुःख का, पड़े न कम्पक वार॥९॥
प्रतिभा है यदि पास में, सब कुछ तब है पास।
होकर भी पर मूर्ख के, मिले न कुछ भी पास॥१०॥


  1. शीघ्र।