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परिच्छेद ४४
दोषों को दूर करना

क्रोध दर्प को जीतकर, जिसमें हो वैराग्य।
उसका एक अपूर्व ही, गौरवमय सौभाग्य॥१॥
दर्प तथा लालच अधिक, मन भी विषयाधीन।
भूपति में ये दोष भी, होते बहुधा तीन॥२॥
राई सा निजदोष भी, माने ताड़ समान।
जिसकी उज्ज्वल कीर्ति है, प्यारी-चन्द्रसमान॥३॥
दोषों का तुम नाश कर, बनो सदा निर्दोष।
सर्वनाश ही अन्यथा, करदेंगे वे दोष॥४॥
भावी दुःखों के लिए, जो न रहे तैयार।
अग्नि-पतिन वह घाससम, हो जाता निस्सार॥५॥
परविशुद्धि के पूर्व जो, स्वयं बने निर्दोष।
योगितुल्य उस भूप को, छू न सके कोई दोष॥६॥
उचित कार्य में भी कमी करे न दान-प्रकाश।
उस पूंजी पर खेद है जिसका अन्त विनाश॥७॥
निन्दा में सब एक से, दिखते यद्यपि दोष।
पूंजीपन पर भिन्न ही, उनमें अधिक सदोष॥८॥
सहसा कोई बात पर, करना अति अनुराग।
और वृथा जो काम हैं, उन सब को बुध त्याग॥९॥
अपने मन की कामना, रखलो अरि से गुप्त।
जिससे उसके यत्न ही, होजावें सब लुप्त॥१०॥