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परिच्छेद ४५
योग्य पुरुषों की मित्रता

करते करते धर्म जो, हो गये वृद्ध उदार।
उनका लेलो प्रेम तुम, करके भक्ति अपार॥१॥
आगे के या हाल के, जो हैं दुःख अथाह।
उनसे रक्षक के सखा, बनो सदा सोत्साह॥२॥
जिसे मिली वर मित्रता, पा करके सद्भाग्य।
निस्संशय उस विज्ञ का, हरा भरा सौभाग्य॥३॥
अधिकगुणी की मित्रता, जिसे मिली कर भक्ति।
उसने एक अपूर्व ही, पाली अद्भुत शक्ति॥४॥
होते हैं भूपाल के, मंत्री लोचनतुल्य।
इससे उनको राखिए, चुनकर ही गुणतुल्य॥५॥
सत्पुरुषों से प्रेममय, जिसका है व्यवहार।
उसका वैरी अल्प भी, कर न सके अपकार॥६॥
झिड़क सकें ऐसे सखा, प्रति दिन जिस के पास।
गौरव के उस गेह में, करती हानि न बास॥७॥
मंत्री के जो मंत्रसम, वचन न माने भूप।
बिना शत्रु उसका नियत, क्षय ही अन्तिमरूप॥८॥
जैसे पूंजी के बिना, मिले न धन का लाभ।
प्राज्ञों की प्रतिमा बिना, त्यों न व्यवस्थालाभ॥९॥
जैसे अखिल विरोध है, बुद्धिहीनता दोष।
सन्मैत्री का त्याग पर, उससे भी अतिदोष॥१०॥