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परिच्छेद ४६
कुसङ्ग से दूर रहना

उत्तम नर दुःसंग से, रहें सदा भयभीत।
ओछे पर ऐसे मिलें, यथा कुटुम्बी मीत॥१॥
बहता जैसी भूमि में बनता पैसा नीर।
संगति जैसी जीव की, वैसा ही गुणशील॥२॥
मस्तक से ही बुद्धि का, है सम्पन्ध विशेष।
पर यश का सम्बन्ध तो, गोष्ठी पर ही शेष॥३॥
नरस्वभाव का वाह्य में, दिखता मन में बास।
पर रहता उस वर्ग में बैठे जिसके पास॥४॥
चाहे मन की शुद्धि हो, चाहे कर्मविशुद्धि।
इन सब का पर मूल है, संगति की ही शुद्धि॥५॥
संतपुरुष को प्राप्त हो, संतति योग्यविशेष।
और सदा फूले फले, जब तक वय हो शेष॥६॥
नर की एक अपूर्व ही, निधि है मन की शुद्धि।
सत्संगति देती तथा, गौरव गुणमय बुद्धि॥७॥
यद्यपि होते प्राज्ञजन, स्वयं गुणों की खान।
सत्संगति को मानते, फिर भी शक्ति महान॥८॥
पुण्यात्मा को स्वर्ग में, लेजाता जो धर्म।
मिलता वह सत्संग से, करके उत्तम कर्म॥९॥
परमसखा-सत्संग से अन्य न कुछ भी और।
और अहित दुःसंग से, जो देखो कर गौर॥१०॥