पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०२]
 

 

परिच्छेद ४७
विचार पूर्वक काम करना

व्यय क्या अथवा लाभ क्या?, क्या हानि इस कार्य।
ऐसा पहिले सोच कर, करे उसे फिर आर्य॥१॥
ऐसों से कर मंत्रणा, जो उसके आचार्य।
राज्य करे उस भूप को, कौन असम्भव कार्य॥२॥
लालच दे बहुलाम का, करदे क्षय ही मूल।
बुध ऐसे उद्योग में, हाथ न डालें भूल॥३॥
हँसी जिसे भाती नहीं, करवानी निजनाम।
बिना विचारे वह नहीं, करता बुध कुछ काम॥४॥
स्वयं न सज्जित युद्ध को, पर जूझे कर टेक।
करता वह निज राज्य पर, मानों अरि अभिषेक॥५॥
अनुचित कार्यों को करे, तब हो नर का नाश।
योग्यकर्म यदि छोड़दे, तो भी सत्यानाश॥६॥
बिना विचारे प्राज्ञगण, करे न कुछ भी काम।
करके पीछे सोचते, उनकी बुद्धि निकाम॥७॥
नीतिमार्ग को त्याग जो, करना चाहे कार्य।
पाकर भी साहाय्य बहु, निष्फल रहे अनार्य॥८॥
नरस्वभाव को देखकर, करो सदा उपकार।
चूक करे से अन्यथा, होगा दुःख अपार॥९॥
निन्दा से जो सर्वथा शून्य, करो वे काम।
कारण निन्दित काम से, गौरव होता श्याम॥१०॥