पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०४]
 

 

परिच्छेद ४८
शक्ति का विचार

विधनों को सोचे प्रथम, निज पर की फिर शक्ति।
देखे पक्ष विपक्ष बल, कार्य करे फिर व्यक्ति॥१॥
चना सुशिक्षित और जो, रखता निजबल-ज्ञान।
अनुगामी हो बुद्धि का, सफल उसी का यान॥२॥
मानी निजवल के बहुत, हुए नरेश अनेक।
शक्ति अधिक जो कार्य कर, मिटे वृथा रख टेक॥३॥
बहुमानी अथवा जिसे, नहीं बलाबलज्ञान।
या अशान्त जीवन अधिक, तो समझो अवशान॥४॥
दुर्बल भी दुर्जय बने, पाकर सब का संग।
मोरपंख के भार से, होता रथ भी भंग॥५॥
क्रिया, शक्ति को देख कर, करते बुद्धिविशाल।
तरु की चोटी अज्ञ चढ़, शिरपर लेना काल॥६॥
वैभव के अनुरूप ही, करो सदा बुध दान।
यह ही योगक्षेम का, कारण श्रेष्ठ विधान॥७॥
क्या चिन्ता यदि आय की, नाली है संकीर्ण।
व्यय की यदि नाली नहीं, गृह में अति विस्तीर्ण॥८॥
द्रव्य तथा निजशक्ति के, लेखे का जो काम।
रखे नहीं जो पूर्व से, रहे न उसका नाम॥९॥
खुले हाथ जो द्रव्य को, लुटवाता अज्ञान।
क्षय में मिलता शीघ्र ही उसका कोष महान॥१०॥