परिच्छेद ५३
बन्धुता
स्नेहस्थिरता दुःख में, दृष्ट न हो अन्यत्र।
वह तो केरल बन्धु में, दिखती है एकत्र॥१॥
घटे नहीं जिस व्यक्ति से, बन्धुजनों का प्यार।
उसकी वैभववृद्धि का रुद्ध न होता द्वार॥२॥
सहृदय हो जिसने नहीं, लिया बन्धु अनुराग।
बाँधबिना वह सत्य ही, रीता एक तड़ाग॥३॥
वैभव का उद्देश्य क्या, कौन तथा फलरीति।
स्वजनों को एकत्र कर, लेना उनकी प्रीति॥४॥
वाणी जिसकी मिष्ट हो, कर हो पूर्ण उदार।
पंक्ति बाँध उसके यहाँ, आते बन्धु अपार॥५॥
अमितदान दे विश्व को, तथा न जिसको क्रोध।
विश्वबन्धु वह एक ही, जो देखो भू सोध॥६॥
काक स्वार्थ से बन्धु को, नहीं छिपावे भक्ष्य।
वैभव भी उसके यहाँ जिसका ऐसा लक्ष्य॥७॥
राजा गुण अनुसार ही, करे बन्धु-सन्मान।
दिखें बहुत से अन्यथा, ईष्या की ही खान॥८॥
हटे उदासी-हेतु तो, मिटजावे अनमेल।
होते मनकी शुद्धि ही, बन्धु करे फिर मेल॥९॥
एक बार तो तोड़ फिर, जो जोड़े सम्बन्ध।
हो सहर्ष उससे मिलो, रखकर तर्क प्रबन्ध॥१०॥