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परिच्छेद ५४
निश्चिन्तता से बचाव

१—अत्यन्त रोष से भी अचेत अवस्था बहुत बुरी है जो कि अहङ्कार पूर्ण अल्प सन्तोष से उत्पन्न होती है।

२—निश्चिन्तता के भ्रमात्मक विचार कीर्ति का भी नाश करते है जैसे दरिद्रता बुद्धि को कुचल देती है।

३—वैभव असावधान लोगों के लिए नहीं है ऐसा ससार के सभी विज्ञजनों का निश्चय है।

४—कापुरुष के लिए दुर्गो से क्या लाभ है। और असावधान के लिए पर्याप्त सहायक उपायो का क्या उपयोग ?

५—जो पहिले से अपनी रक्षा में प्रमादी रहता है तब वह अपनी निश्चिन्तता पर पीछे से विलाप करता है, जब कि वह विपत्ति से विस्मित हो जाता है।

६—यदि तुम अपनी सावधानी मे हर समय और हरेक प्रकार के आदमियों से रक्षा करने मे सुस्ती नहीं करते तो इसके बराबर और क्या बात है!

७—उस मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नही है जो कि अपने काम मे सुरक्षित और सजग रहने का विचार रखता है।

८—राजा को चाहिए कि विद्वानों द्वारा प्रशसित कार्यों में अपने को परिश्रमपूर्वक जुटा दे। यदि वह उनकी उपेक्षा करता है तो वह दुख उठाने से कभी भी नही बच सकता।

९—जब तुम्हारी आत्मा अहङ्कार और उत्सेक से मोहित होने को हो तब मस्तक में उनका स्मरण रक्खो जो कि लापरवाही और वेसुवपन से नष्ट हो गये है।

१०—निश्चय ही एक मनुष्य के लिए यह सरल है वह जो कुछ इच्छा करे उसको प्राप्त करले, लेकिन वह अपने उद्देश को निरन्तर अपने मस्तिष्क के सामने रवखे।