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परिच्छेद ५५
न्याय-शासन

१—पूर्ण विचार करो और किसी की ओर मत झुको, निष्पक्ष होकर नीतिज्ञजनो की सम्मति लो, न्याय करने की यही रीति है।

२—संसार जीवनदान के लिए बादलो की ओर देखता है, ठीक इसी प्रकार न्याय के लिए लोग राजदण्ड की ओर निहारते है।

३—राज-दण्ड ही ब्रह्म-विद्या और धर्म का मुख्य संरक्षक है।

४—जो राजा अपने राज्य की प्रजा पर प्रेम-पूर्वक शासन करता है उससे राज्यलक्ष्मी कभी पृथक् न होगी।

५—जो नरेश नियमानुसार राज-दण्ड धारण करता है उसका देश समयानुकूल वर्षा और शस्य-श्री का घर बन जाता है।

६—राजा की विजय का कारण उसका भला नहीं होता है बल्कि यों कहिये कि वह राज-दण्ड है जो निरन्तर सीधा रहता है और कभी किसी की ओर को नहीं झुकता।

७—राजा अपनी समस्त प्रजा का रक्षक है और उसकी रक्षा करेगा उसका राज-दण्ड, परन्तु वह उसे कभी किसी की ओर न झुकने दे।

८—जिस राजा की प्रजा सरलता से उसके पास तक नही पहुँच सकती और जो ध्यानपूर्वक न्याय विचार नहीं करता, वह राजा अपने पद से भ्रष्ट हो जायगा और वैरियों के न होने पर भी नष्ट हो जायगा।

९—जो राजा आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं से अपनी प्रजा की रक्षा करता है, वह यदि अपराध करने पर उन्हे दण्ड दे तो यह उसका दोष नही है, किन्तु कर्तव्य है।

१०—दुष्टों को मृत्युदण्ड देना अनाज के खेत से घास को बाहिर निकालने के समान है।