परिच्छेद ५८
विचारशीलता
१—उस परम आनन्ददायक सुन्दरता को देखो, जिसे लोग शील कहते है। यदि यह जगत सुचारु रूपसे चल रहा है तो इसमे कारण एक शीलता ही है।
२—जीवन की मनोहरताओ का शील में अस्तित्व रहता है, जो इसको नही रखते वे पृथ्वी के लिए भार है।
३—उस गीत का क्या महत्व है जो गाया नही जाता और उस आँख का क्या महत्व है जो प्रेम नही दर्शाती?
४—उन आँखों से क्या लाभ जो चेहरे में केवल दिखती है, यदि वे दूसरो के लिए मात्रा के अनुसार आदर नही दर्शाती।
५—शील आँख का भूषण है। जिस आँख में यह नहीं होता वह केवल एक घाव ही समझा जायगा।
६—उन लोगों को देखो जिनके आँखें है पर जो दूसरो के प्रति बिल्कुल शील (लिहाज) नहीं रखते, निश्चय ही उन मूर्तियों से अच्छे नही है जो, काठ व मिट्टी की बनी हुई है।
७—सचमुच ही वे अन्धे है जो दूसरो के प्रति आदर नहीं रखते और केवल वे ही वास्तव में देखते है जो दूसरों की गलतियों के प्रति दयालु रहते है।
८—उस आदमी को देखो जो दूसरो के प्रति बिना अपने किसी कर्तव्य को कम किये लिहाजदार रह सकता है, वह पृथ्वी को उत्तराधिकार में पा लेगा।
९—यह उच्चता है कि जिसने तुमको दुख दिया हो उसे तुम छोड़ दो और उसके साथ क्षमा का व्यवहार करो।
१०—जो सत्य ही सुशील नेत्र वाला बनना चाहते है उनको वह विष भी पीना होगा जो उनकी आँखों के सामने ही मिलाया गया हो।