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परिच्छेद ५९
गुप्तचर

राज्यस्थिति के ज्ञान को, भूपति के दो नेत्र।
पहिला उनमें 'नीति' है, दूजा 'चर' है नेत्र॥१॥
राजा के कर्तव्य में, यह भी निश्चित काम।
देखे नृप चरचक्षु से, नरचर्या प्रतियाम॥२॥
चर से या निज दूत से, घटनाएँ विज्ञात।
जिस नृप को होती नही, उसे विजय क्या तात॥३॥
रिपु, बान्धव या भृत्य की, गति मति के बोधार्थ।
रक्खे चर को नित्य नृप, जो दे बाव यथार्थं॥४॥
जिसकी मुखमुद्रा नहीं, करती कुछ सन्देह।
वाक्यचतुर, निजमर्म का रक्षक चर गुणगेह॥५॥
साधु तपस्वीवेश में, रक्षित करके मर्म।
भाँति भाँति के यत्न से, साधे चर निजकर्म॥६॥
लेने में परमर्म को, जो है सहज प्रवीण।
जिसकी खोजें सत्य हों, वह ही प्रणिधि-धुरीण॥७॥
पूर्व प्रणिधि[१] की सूचना, करे नृपति तब मान्य।
उसमें परचर-उक्ति से, जत्र आवे प्रामाण्य॥८॥
आपस में अज्ञात हों, ऐसे चर दें कार्य।
तीन कहें जब एक से, तन समझो सच आर्य॥९॥
पुरस्कार निजराज्य के, चर का करो न ख्यात।
सर्वराज्य ही अन्यथा, होगा पर को ज्ञात॥१०।॥


  1. गुप्तचर।