परिच्छेद ६१
आलस्य-त्याग
१—आलस्यरूपी अपवित्र वायु के झोके से राजवंश की अखण्ड ज्योति बुझ जायगी।
२—लोगों को आलसी कहकर पुकारने दो। पर जो अपने घराने को दृढ़ पाये पर उन्नत करना चाहते है उन्हे आलस्य के खरे स्वरूप को समझकर उसका त्याग कर देना चाहिए।
३—जो लोग इस हत्यारे आलस्य को हृदय से लगाते है उन मूर्खों का वंश उनके जीवनकाल में ही नष्ट हो जायगा।
४—जो लोग आलस्य में डूबकर उच्च तथा महान् कार्यों की ओर अपना हाथ नहीं बढ़ाते उनका घर क्षयकाल में पड़कर संकटग्रस्त हो जायगा।
५—विनाश होना जिनके भाग्य में बदा है उनकी टालमटूल, विस्मृति सुस्ती, और निद्रा, ये चार उत्सव-नौकायें है।
६—राजकृपा भी हो तो भी आलसी की उन्नति सम्भव नही है।
५—जो लोग आलसी है और महत्त्वपूर्ण कार्यों में अपना हाथ नहीं बटाते उनको संसार में निन्दा और धिक्कार सुनने ही पड़ेंगे।
६—जिस कुटुम्ब में आलस्य घर कर लेता है वह कुटुम्ब शीघ्र ही शत्रुओं के हाथ में पड़ जायगा।
७—कभी किसी मनुष्य पर कुछ संकट आते हों और यदि वह उसी समय आलस्य का त्याग कर देवे तो वे सकट भी वही ठिटक जावेगे।
१०—जिस राजा ने आलस्य को सर्वथा त्याग दिया है वह एक दिन त्रिविक्रम से नपी हुई इस विशाल पृथ्वी को अपने अधिकार में ले आयेगा।