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परिच्छेद ६३
संकट में धैर्य

१—जब तुम पर कोई आपदा आ पड़े तो तुम हंसते हुए उसका सामना करो क्योकि मनुष्य को आपत्ति का सामना करने के लिए सहायता देने मे मुस्कान से बढ़कर और कोई वस्तु नही है।

२—अनिश्चित मन का पुरुष भी मन को एकाग्र करके जब सामना करने को खड़ा होता है तो आपत्तियों का लहराता हुआ सागर भी दबकर बैठ जाता है।

३—आपत्तियों को जो आपत्ति नही समझते, वे आपत्तियों को ही आपत्ति में डालकर वापिस भेज देते है।

४—भैसे की तरह हर एक संकट का सामना करने के लिए जो जी तोड़कर श्रम करने को तैयार है, उसके सामने विघ्न-बाधा आयँगी पर निराश होकर अपना सा मुँह लेकर वापिस चली जायेंगी।

५—आपत्ति की एक समस्त सेना को अपने विरुद्ध सुसज्जित खड़ी देखकर भी जिसका मन बैठ नहीं जाता, वाधाओं को उसके पास आने में स्वयं वाधा होती है।

६—सौभाग्य के समय जो हर्ष नहीं मनाते क्या वे कभी इस प्रकार का दुखौना कहते फिरेगे कि हाय! हम नष्ट हो गये।

७—बुद्धिमान् लोग जानते है कि यह देह तो विपत्तियों का घर है और इसीलिए जब उन पर कोई संकट आ जाता है तो वे उसकी कुछ पर्वाह नहीं करते।

८—जो आदमी भोगोपभोग की लालसा में लिप्त नहीं और जो जानता है कि आपत्तिया भी सृष्टि-नियम के अन्तर्गत है, वह वाधा पड़ने पर कभी दुखित नहीं होता।

९—सफलता के समय जो हर्ष में मग्न नहीं होता, असफलता के समय उसे दुख से घबराना नही पड़ता।

१०—जो आदमी परिश्रम के दुख, दबाव और आवेग को सच्चा सुख समझता है उसके वैरी भी उसकी प्रशंसा करते है।