पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४०]
 

 

परिच्छेद ६६
शुभाचरण

सफल बनें तब कार्य सब, जब होवे वर मित्र।
फलती पर सत्र कामना, जब आचार पवित्र॥१॥
कीर्ति नहीं जिस काम से, और न कुछ भी लाभ।
ऐसे से रह दूर ही, बड़ी इसी में आम॥२॥
यदि चाहो संसार में, अपनी उन्नति तात।
त्यागो तब उस कार्य को, करता जो यशघात॥३॥
संकट में भी शुद्ध है, जिनकी बुद्धि ललाम।
ओछे और आकीर्तिकर, करें नहीं वे काम॥४॥
जिस पर पश्चाताप हो, करे नहीं वह आर्य।
और किया तो भूल से, करे न फिर वह कार्य॥५॥
भद्रपुरुष की दृष्टि में, जो हैं निन्दा-धाम।
जननी के रक्षार्थ भी, करो न बुध वे काम॥६॥
न्यायी का दारिद्रय भी, होता शोभित तात।
वैभव भी नयहीन का, रुचे नहीं पर भ्रात॥७॥
त्याज्य कहे भी शास्त्र में, जो नर करे अकार्य।
शान्ति नहीं उसको मिले, यद्यपि हो कृतकार्य॥८॥
रुला रुला कर द्रव्य जो, होती संचित तात।
क्रन्दनध्वनि के साथ वह, चपला सी छिप जात॥
धर्ममूल जो सम्पदा, पुण्यहेतु विख्यात।
कृश भी यदि हो मध्य में, अन्त फले वह तात॥९॥(युग्म)
कच्चे घट में नीर का, भरना ज्यों है व्यर्थ।
माया से कर वश्चना, जोड़ा त्यों ही अर्थ॥१०॥