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परिच्छेद ७०
राजाओं के समक्ष व्यवहार

१—जो कोई राजाओं के साथ रहना चाहता है, उसको चाहिए कि वह उस आदमी के समान व्यवहार करे, जो आग के सामने बैठकर तापता है, उसको न तो अति समीप जाना चाहिए न अति दूर।

२—राजा जिन वस्तुओं को चाहता है उनकी लालसा न रखो, यही उसकी स्थायी कृपा प्राप्त करने और उसके द्वारा समृद्धिशाली बनने का मूल मंत्र है।

३—यदि तुम राजा की अप्रसन्नता में पड़ना नही चाहते तो तुमको चाहिए कि हर प्रकार के गम्भीर दोषों से सदा शुद्ध रहो, क्योकि यदि एक बार भी सन्देह पैदा हो गया तो फिर उसे दूर करना असम्भव हो जाता है।

४—राजा के सामने लोगों से काना-फूसी न करो और न किसी दूसरे के साथ हँसों या मुस्कराओं।

५—छिपकर राजा की कोई बात सुनने का प्रयत्न न करो और जो बात तुम्हें नही बताई गई है उसका पता लगाने की चेष्टा भी न करो। जब तुम्हे बताया जाय तभी उस भेद को जानो।

६—राजा की मनोवृत्ति इस समय कैसी है, इस बात को समझ लो और क्या प्रसग है इस को भी देखलो, तब ऐसे शब्द बोलो जिनसे वह प्रसन्न हो।

७—राजा के सामने उन्हीं बातों की चर्चा करो जिनसे वह प्रसन्न हो, पर जिन बातों से कुछ लाभ नही है उन निरर्थक बातों की चर्चा राजा के पूछने पर भी न करो।

८—राजा नवयुवक है और तुम्हारा सम्बन्धी अथवा नातेदार है इस लिए तुम उसको तुच्छ मत समझो, बल्कि उसके अन्दर जो ज्योति विराजमान है उसके सामने भय मान कर रहो।

९—जिनकी दृष्टि निर्मल और निर्द्वन्द है वे यह समझकर कि हम राजा के कृपापात्र है कभी कोई ऐसा काम नहीं करते जिससे राजा असन्तुष्ट हो।

१०—जो मनुष्य राजा की घनिष्टता और मित्रता पर भरोसा रखकर अयोग्य काम कर बैठते है, वे नष्ट हो जाते है।