परिच्छेद ७१
मुखाकृति से मनोभाव समझना
मनोभाव जो जानले, भाषण के ही पूर्व।
मेधावी वह धन्य है पृथ्वी तिलक अपूर्व॥१॥
प्रतिभा-पल से जानले, जो मन के सब भेद।
पृथ्वी में वह देवता, मानो यही प्रभेद॥२॥
आकृति से ही भाँप ले, जो नर पर के भाव।
बहुयत्नों से मंत्रणा, लो उसकी रख चाव॥३॥
अज्ञ मनुज तो उक्त ही, जाने चतुर अनुक्त।
आकृति यद्यपि एकसी, फिर भी भिन्न प्रयुक्त॥४॥
जो आँखें जाने नहीं, नर के हृद्गत भाव।
ज्ञानेन्द्रिय में व्यर्थ ही, है उनका सद्भाव॥५॥
पड़ती जैसे स्फटिक पर, वर्ण वर्ण की छाप।
त्यों ही हार्दिक भाव भी, झलकें मुख पर आप॥६॥
भावपूर्ण मुख से नहीं, बढ़कर कोई वस्तु।
हर्ष कोप सब से प्रथम, कहती यह ही वस्तु॥७॥
बिना कहे ही जान ले, जो नर पर के भाव।
दर्शन उसका सिद्धि दे, ऐसा पुण्यप्रभाव॥८॥
निपुण पारखी भाव का, यदि होवे नर आप।
तो केवल वह चक्षु से, राग घृणा ले भाँप॥९॥
जो नर हैं इस विश्व में, भद्र धूर्त विख्यात।
उनकी आँखें आप ही, कहती उनकी बात॥१०॥