पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[२५८
 

 

परिच्छेद ७५
दुर्ग

निर्बल की रक्षार्थ गढ़, यदि है प्रवल सहाय।
तो पाते बलवान भी, न्यून नहीं सदुपाय॥१॥
अद्रि, नीर, मरुभूमि, वन, और परिधि के दुर्ग।
रक्षक ये हैं राष्ट्र के, सर ही सीमा दुर्ग॥२॥
दृढ़ ऊँचा विस्तीर्ण हो, रिषु से और अजेय।
दुर्गों के निर्माण में, ये सत्र गुण हैं ज्ञेय॥३॥
दुर्ग प्रवर वह ही जहाँ, हो यथेष्ट विस्तार।
दृढ़ता में अन्यून हो, करे विफल रिपु बार॥४॥
रक्षा और अजेयता, सवविध वस्तुप्रबन्ध।
ये गुण रखते दुर्ग से, आवश्यक सम्बन्ध॥५॥
है यथार्थ वह ही किला, रक्षक जिसके वीर।
धान्यादिक से पूर्ण जो, रखता उत्तम नीर॥६॥
धावा कर या घेर कर, या सुरङ्ग से खण्ड।
करके, जिसे न जीतते, वह ही दुर्ग प्रचण्ड॥७॥
धेरा देकर भी जिसे, थकजाते अरि वीर।
बल देते निज सैन्य को, गढ़ के दृढ़ प्राचीर॥८॥
वह ही सच्चा दुर्ग है, जिसके बलपर वीर‌।
सीमापर ही शत्रु को, करदे भिन्न-शरीर॥९॥
पूर्ण सुसज्जित दुर्ग भी, हो जाता बेकाम।
रक्षक फुर्ती त्याग कर, करते यदि विश्राम॥१०॥