पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६४]
 

 

परिच्छेद ७८
वीर योद्धा का आत्मगौरव

रे रे प्रभु के वैरियो, मत अकड़ो ले वान।
बहुतेरे अरि युद्ध कर, पड़े चिता-पाषान॥१॥
भाला यदि है चूकता, गज पर, तो भी मान।
लगकर भी शश पर नहीं, देना शर सन्मान॥२॥
साहस ही है वीरता, रण में वह यमरूप।
शरणागतवात्सल्य भी, दूजा सुभग स्वरूप॥३॥
भाला गज में घूँस निज, फिरे ढूँढ़ता अन्य।
देख उसे निजगात्र से खींचे वह भट धन्य॥४॥
रिपु भाले के चार से, झपजावे यदि दृष्टि।
इससे बढ़कर वीर को, क्या हो लज्जा-सृष्टि॥५॥
जिन दिवमों में वीर को, लगें न गहरे घाव।
उन दिवसों का व्यर्थ ही, मानें वे सद्भाव॥६॥
प्राणों का तज मोह जो, चाहे कीर्ति अपार।
पग की बेड़ी भी उसे, बनती शोभागार॥७॥
युद्ध समय जिसको नहीं, अन्तक[१] से भी भीति।
नायक के आतंक से, तजे न वह भटनीति॥८॥
करते करते साधना, जिसका जीवन मौन।
हो जावे, उस वीर को, दोषविधायक कौन॥९॥
स्वामी जिसको देख कर, भरदे आँखों नीर।
भिक्षा से या चाटु से, लो, वह मृत्यु सुवीर॥१०॥


  1. मृत्यु।