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पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२९१

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परिच्छेद ७९
मित्रता

सन्मैत्री की प्राप्तिमम, कौन कठिन है काम।
उस समान इस विश्व में, कौन कवच बलधाम॥१॥
मैत्री होती श्रेष्ठ की, बढ़ते चन्द्र समान।
ओछे की होती वही, घटते चन्द्र समान॥२॥
सत्पुरुषों की मित्रता, है स्वाध्याय समान।
प्रति दिन परिचय से जहाँ, झलके सद्गुणखान॥३॥
केवल मनोविनोद को, नहीं करें बुध प्रीत।
भत्सित कर भी मित्र को, ले आते शुभरीति॥४॥
सदा साथ चलना नहीं, और न बारम्बार।
मिलना, मैत्री हेतु है, मन ही मुख्याधार॥५॥
'मैत्रीगृह' गोष्ठी नहीं, होता जिस में हास्य।
मैत्री होती प्रेम से, जो हरती औदास्य॥६॥
अशुभमार्ग से दूर कर, करदे कर्म पवित्र।
दुःख समय भी साथ जो, वही मित्र सन्मित्र॥७॥
उड़ते पट को शीघ्र ही, ज्यों पकड़ें कर दौड़।
मित्रकष्ट में मित्र त्यों, आते पल में दौड़॥८॥
मैत्री मन की एकता, वहीं प्रीतिदरबार।
निज-पर के उत्कर्ष को, जहाँ विवेक-विचार॥९॥
मैत्री या बह रङ्कता, जिस में कार्य-हिसाब।
मैत्री का फिर गर्व भी, रखे नहीं कुछ भाव॥१०॥