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परिच्छेद ८४
मूर्खता

कहैं किसे हम मूर्खता तो सु लो पहिचान।
लाभप्रद का त्यागना, हानिहेतु आदान॥१॥
खोटे अनुचित कृन्य में, फँसना बिना विवेक।
प्रथमकोटि की मूर्खता, समझो यह ही एक॥२॥
धर्म अरुचि निर्दयपना, कहना निन्दित बात।
विस्मृत कर कर्तव्य को, बने मृढ़ प्रख्यात॥३॥
शिक्षित होकर दक्ष हो हो गुरुपद आरूढ़।
फिर भी इन्द्रियलम्पटी, उस सम और न मूढ़॥४॥
जीवन में ही पूर्व से, कहे स्वयं अज्ञान।
अहो नरक का, क्षु:बिल, मेरा भावी स्थान॥५॥
उच्चकार्य को मूढ़ नर, लेकर अपने हाथ।
करे न उसका नाश ही, बन्दी बनता साथ॥६॥
मूर्खमनुज की द्रव्य का, करें और ही भोग।
क्षुधाशान्ति के अर्थ पर, तरसें परिजनलोग॥७॥
कारणवश बहुमूल्य कुछ, पाजावे दि अज्ञ।
चेष्टाये उन्मत्त सीं, तो करता सावज्ञ॥८॥
मूढ़जनों की मित्रता, मन को बड़ी सुहात।
कारण टूटे से अहो, दुःख न हो कुछ ज्ञात॥९॥
बुधमण्डल में अज्ञ नर, त्यों ही दिखता हान।
पयसन घाल पलंग पर, ज्यों हो पैर मलीन॥१०॥