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परिच्छेद ८८
शत्रुओं के साथ व्यवहार

मत छेड़ों बुध जानकर, चाहे हो भी हाथ।
हत्यारे उस वैर को, जो है यम का आस्य॥१॥
शस्त्रपाणि के साथ में, चाहे करलो बैर।
वाणी जिसकी शस्त्र पर, मतकर उससे बैर॥२॥
नहीं सहायक एक भी, फिर भी रण-आलाप-
करता, जो रिपुसंघ में, वह नृप पागल आप॥३॥
अरि को जो चातुर्य से, करले मित्र उदार।
श्री स्थिर उस भूप की, कर भी जय आधार॥४॥
दो रिपु यदि हों सामने, हो असहायी आप।
संधि करो तब एक से, पर से लड़ ले चाप॥५॥
जब हो अपने राज्य पर, बाह्यशक्ति का बार।
सजग पड़ौसी से रहो, मध्यस्थिति हितकार॥६॥
बाधाएँ अनजान से, बोलो कभी न भूल।
जानसकें त्रुटियाँ नहीं, वे, जो हो प्रतिकूल॥७॥
दृढ़साधन, दृढ़युक्तियाँ, दृढ़रक्षा, दृढ़तंत्र।
यदि हों तो रिपु-गर्व का, मिले धूलि में मंत्र॥८॥
वृक्ष कटीले काट दो, उगते ही लख दाव।
छेदक कर में अन्यथा, देंगे पीछे घाव॥९॥
अरिमद-भजन की नहीं, जिन में शक्ति अनल्प।
अधम पुरुष वे लोक में, जीवन उनका स्वरूप॥१०॥