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पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/३११

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परिच्छेद ९०
बड़ों के प्रति दुर्व्यवहार न करना

सन्तों के अपमान से, निज रक्षा का कार्य।
करलो यदि हो कामना, क्षेम-कुशल की आर्य॥१॥
सत्पुरुषों की अज्ञ यदि, करे अवज्ञा हास।
टूटे उनकी शक्ति से, शिर पर विपदाकाश॥२॥
हितूजनों को लाँघकर, जाओ करलो नाश।
करो बली से बैर जो, करदे सत्तानाश॥३॥
शक्तिसहित बलवान का, करता जो अपमान।
वह क्रोधी निजनाश को, करता यम आह्वान॥४॥
बलशाली या भूप का, करके क्रोध उभार
पृथिवी पर नर को नहीं, सुख का कुछ आधार॥५॥
पूर्ण भयंकर आग से, बच सकते नर-प्राण।
पर मान्यों से द्वेष रख, कैसे उनका त्राण॥६॥
आत्मबली योगीष जो, करें कोप की वृद्धि।
जीवन में फिर हर्ष क्या, क्या हो वैभव-सिद्धि॥७॥
गिरिसमान ऋषि उच्च हैं, उनकी शक्ति असीम।
उखड़े उनके कोप से, सुदृढ़ राज्य निस्सीम॥८॥
व्रत से जिन का शुद्ध मन, वे ऋषि यदि हों रुष्ट।
स्वर्गाधिप तब इन्द्र भी, होता पद से भ्रष्ट॥९॥
आत्मशक्ति के देवता, ऋषि का कोप महान।
बचे नहीं बलवान का, नर ले आश्रयदा॥१०॥