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पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/३१५

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परिच्छेद ९२
वेश्या

जिन्हें न नर से प्रेम है, धन से ही अनुकूल।
कपटमधुर उनके बचन, बनते विपदा-मूल॥१॥
वेश्या मधुसम बोलनी, धन की आय विचार।
चाल ढाल उसकी समझ, दूर रहो यह सार॥२॥
गणिका उर से भेटती, धनिक देख निज जार
ऊपर से कर धूर्तता, दिखलाती अति प्यार॥
लगे उसे पर चित्त मे, प्रेमी की यह देह।
बेगारी तम में छुए, ज्यों कोई मृतदेह॥३॥ (युग्म)
व्रतभूषित नररत्न जो, होते मन्द-कषाय।
करे न वेश्यासंग से, दूषित वे निज काय॥४॥
जिनके ज्ञान अगाध है, अथवा निर्मल बुद्धि।
रूप-हाट से वे कभी, लेते नहीं अशुद्धि॥५॥
रूप अपावन बेचती, वेश्या चपल अपार।
छुएँ न उसका हाथ वे, जो हैं निजहितकार॥६॥
खोजें असती नारियाँ, नर ही अधम जघन्य।
गले लगातीं एक वे, सोचें मन से अन्य॥७॥
अविवेकी गुनते यही, पाकर वेश्या संग।
स्वर्गसुधा सी अप्सरा, मानो लिपटी अंग॥८॥
बनी ठनी शृङ्गार से, वेश्या नरक सम।
नाले जिसके बाहु हैं, डूचे कामी आन॥९॥
द्यूतचाट वेश्यागमन, और सुरा का पान।
भाग्यश्री जिनकी हटी, उनके सुख सामान॥१०॥