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परिच्छेद ९३
मद्य का त्याग

१—देखो, जिन लोगों को मद्य पीने का व्यसन लगा हुआ है उनके शत्रु उनसे कभी न डरेगे और जो कुछ उन्हें मान प्रतिष्ठा प्राप्त है वह भी जाती रहेगी।

२—कोई भी शराब न पिये, यदि कोई पीना ही चाहे तो उन लोगों को पीने दो कि जिन्हे आर्य पुरुषों से मान मर्यादा मिलने की परवाह नहीं है।

३—जो आदमी नशे में चूर है उसकी आकृति स्वय उसको जन्म देने वाली माता को ही बुरी लगती है। फिर भला वह सत्पात्र पुरुषों को कैसी लगेगी

४—जिन लोगों को मदिरापान की घृणित आदत पड़ी हुई है लज्जा-रूपिणी सुन्दरी उनसे अपना मुंह फेर लेती है।

५—यह तो असीम मूर्खता और अपात्रता है कि अपना धन खर्च करे और बदले में विस्मृति तथा विभ्रम को मोल लेवे।

६—जो लोग प्रतिदिन उस विष का पान करते है कि जिसे ताड़ी या मद्य कहते है वे मानो महानिन्द्रा में ग्रस्त है। उनमे और मृतक मे कोई अन्तर नहीं होता।

७—जो लोग चोरी से मदिरा पीते है और अपने समय को अचेत अवस्था में तथा स्मृतिशून्यता में गमाते है, उनके पड़ोसी शीघ्र ही इस बात को जान जायेंगे और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखेगे।

८—मद्यपायी व्यर्थ ही यह कहने का ढोंग न करे कि मैं तो मदिरा को जानता ही नही, क्योकि ऐसा कहने से वह उस दुष्कृत्य के साथ झूठ बोलने का पाप और अधिक शामिल करता है।

९—जो मद्य-प्यासे को सीख देने का प्रयत्न करता है, वह उस मनुष्य के समान है जो पानी में डूबे हुए आदमी को मसाल लेकर ढूँढ़ता है।

१०—जो आदमी अपनी सचेत अवस्था में किसी दूसरे दारूकुट्टे की दुर्गति को स्वय आँखों से देखता है तो क्या वह निज का अनुमान नही लगा सकता कि जब वह नशे में होता है तो उसकी भी यही दशा होती होगी।