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परिच्छेद ९४
जुआ

जीतो तो भी द्यूत को, मतखेलो
धीमान्।
व्यक्ति-मत्स्य को द्यूतजय, बनसीमांस समान॥१॥
जिसमें सौ को हार कर, कभी जीतले एक।
उसी जुआ से ऋद्धि की, कैसी आशा नेक॥२॥
पैसा रख कर दाव पर, जिसे जुआ की चाट।
हरलेते अज्ञातजन, उसका सारा ठाट॥३॥
द्यूत अधम जैसा करे, करे न वैसा अन्य।
पापअर्थ मन को सजा, यश को करे जघन्य॥४॥
भानें निज को द्यूतपटु ऐसे लोग अनेक।
पछताया जो हो नहीं, पर क्या उनमें एक॥५॥
द्यूतअन्ध दुर्दैव से, भोगे कष्ट अनन्त।
व्यसनी इसका मूढ़ नर, मरे क्षुधा से अन्त॥६॥
जाता द्यूतागार में, प्रायः जिसका काल।
पैतृक धन के साथ वह, खोता कीर्ति विशाल॥७॥
स्वाहा करदे सम्पदा, साख मिटे चहुँओर।
विपदा-साथी द्यूत यह, करदे हृदय कठोर॥८॥
छोड़ें द्यूतासक्त को, कीर्ति-सम्पदा-ज्ञान
यही नहीं, वह मांगता, अन्न वस्त्र का दान॥९॥
ज्यों ज्यों हारे द्यूत में, त्यो त्यों बढ़ता राग।
दुःखित होकर जन्म भर, जलती तृष्णा आग॥१०॥