परिच्छेद ९५
औषधि
१—बात आदि जिन तीन गुणों का वर्णन ऋषियों ने किया है उनमे से कोई भी यदि अपनी सीमा से घट बढ़ जावे तो वह रोग का कारण हो जाता है।
२—शरीर के लिए औषधि की कोई आवश्यकता न हो यदि खाया हुआ भोजन परिपाक हो जाने के पश्चात् खाया जावे।
३—भोजन सदैव शान्ति के साथ करो और जीमे हुए अन्न के पच जाने पर ही फिर भोजन करो, बस दीघायु होने का यही सर्वोत्तम मार्ग है।
४—जब तक तुम्हारा खाया हुआ अन्न न पच जावे और जब तक कड़क कर भूख न लगे तब तक भोजन के लिए ठहरे रहो और उसके पश्चात् शान्ति के साथ वह खाओं जो तुम्हारी प्रकृति के अनुकूल है।
५—यदि तुम शान्ति के साथ ऐसा भोजन करो जो तुम्हारी प्रकृति के अनुकूल है तो तुम्हारे शरीर में किसी प्रकार की व्यथा न होगी।
६—जिस प्रकार आरोग्य उस मनुष्य को ढूँढ़ता है जो पेट खाली होने पर भोजन करता है, ठीक उसी प्रकार रोग उस आदमी को ढूँढता हुआ पाता है जो मात्रा से अधिक खाता है।
७—जो आदमी मूर्खता से अपनी जठराग्नि से परे खूब हँस हँस कर खाता है उसको अनगिनते रोग घेरे ही रहेगे।
८—रोग, उसकी उत्पत्ति और उसका निदान, इन सबका प्रथम विचार करलो, पीछे तत्परता के साथ उसको दूर करने में लग जाओ।
९—वैद्य को चाहिए कि वह रोगी, रोग और ऋतु का पूर्ण विचार करले, तब उसक पश्चात् औषधि प्रारम्भ करे।
१०—रोगी, वैद्य, औषधि और औषधि-विक्रता, इन चारों पर ही चिकित्सा निर्भर है और उनमे से हर एक के फिर चार चार